
लालच
आपने वो पुरानी कथा सो सुनी होगी। एक व्यक्ति ने अपने यहां भोज का आयोजन किया, ऐसे अवसरों पर लोग आसपास से बर्तन माँग कर काम चला लेते थे। मित्रों को दावत दी। अगले दिन जब उसने सबके बर्तन लौटाए तो सभी बड़े बर्तनों के साथ उन्हीं जैसा एक-एक बर्तन भी साथ रखवा कर भिजवाए। जब बर्तन वालों ने इसकी वजह पूछी तो उसके कहा कि रात को तुम्हाने बर्तनों से बच्चे दिए, सो ये भी तो तुम्हारे ही हुए। पड़ोसी खुश। हर बर्तन के साथ मुफ्त में एक छोटा बर्तन भी मिल गया। कुछ दिनों के बाद वह व्यक्ति अपने यहाँ दावत के बहााने फिर पड़ोसियों के यहाँ गया और बर्तन उधार देने के लिए कहा। पड़ोसियों से खुशी-खुशी अपने बर्तन उसे दे दिए, उसे जितने कहे उससे भी ज्यादा बर्तन दे दिए। अगले दिन जब लोग अपने-अपने बर्तन वापसे लेने उसके घर पहुंचे, तो उसे एक खाली कमरा खोलकर दिखाते हुए कहा कि बर्तन तो बच्चा देते हुए भगवान को प्यारे हो गए। सारे बर्तन एक ही रात में चल बसे। अब मैं कहाँ से तुम्हें बर्तन दूँ?
लोग रो-पीटकर रह गए। उसकी बात झुठलाएं भी तो कैसे पहले जब उसने बर्तनों के साथ उनके पैदा हुए बच्चे दिए थे, तो किसी ने भी उसका विरोध नहीं किया था। लालच के कारण वे एक असंभव बात को भी नकार नहीं पाए थे। देर-सवेरे हर लोभ का यही परिणाम होता है। मोटे ब्याज के लालच में मूल से भी हाथ धोना पड़ता है।
इसी कहानी को आज के परिवेश में देखा जाए तो लगेगा नेता और जनता दोनों ही एक दूसरे को बेवकूफ बना रहे हैं। पहले जो नेता कहता है जनता मान लेती है वो चुन लिया जाता है फिर वो जो कहता है जनता को मानना पड़ता है। पहले बिना सोचे समझे जनता उसके झूठे वायदों को सही मानती है क्यों? उदाहरणार्थ दिल्ली में पानी और बिजली की कमी है। नेताओं ने बड़े-बड़े वायदे किये तो क्या जनता नहीं जानती की पानी कहाँ से लायेंगे, बिजली कहाँ से लायेंगे। जब कोई ऐसा जादू तो है नहीं परन्तु जनता है, वोट दिए। रिजल्ट के बाद अब कैसे कहें नेता से पानी और बिजली का प्रबन्ध करो।
