
प्रेरक प्रसङ्ग : विक्षिप्त कौन है ?
एक विद्वान था, जिसे अपनी विद्वतापर अहङ्कार हो गया था । एक दिवस वह सागरके तटपर टहलने गया और उसने देखा एक विक्षिप्त व्यक्ति बालूमें एक गड्ढा खोदकर, दौडकर जाता है, घडेमें जल भरता है, आकर गड्ढेमें डालता है, पुन: भागता है और वही प्रक्रिया दोहराता है । वह विद्वान उसे देखता रहा, उसकी जिज्ञासा बढी । उसे अपने आपको रोक पाना सम्भव नहीं हुआ । वह सज्जन व्यक्ति था, किसीके कार्यमें बाधा नहीं डालना चाहता था, किसीसे पूछना भी तो उचित नहीं; परन्तु उस व्यक्तिकी भागदौड बहुत बढ गई, उसमें जिज्ञासा बढ गई कि यह प्रकरण क्या है, यह कर क्या रहा है ? उसने पूछा, “ये क्या कर रहे हो ?” विक्षिप्तने कहा, “क्या कर रहा हूं; सागरको रिक्त कर रहा हूं ! इस गड्ढेमें सागर न भर दिया तो मेरा नाम नहीं !” विद्वानने कहा, “मैं तो कोई हस्तक्षेप करनेवाला नहीं हूं; परन्तु यह कृति विक्षिप्तता दर्शा रही है कि इस छोटेसे घडेसे तुम इतना विराट सागर कैसे रिक्त कर लोगे ? जन्म-जन्म लग जाएंगे, तो भी न होगा । शताब्दियां बीत जाएंगी, तो भी न होगा कि इस छोटेसे गड्ढेमें सागर भर जाएगा ?
वह व्यक्ति खिलखिलाकर हंसने लगा और उसने कहा, “तुम क्या सोचते हो ? तुम कुछ अन्य कर रहे हो या तुम कुछ भिन्न कर रहे हो ? तुम इस छोटीसी खोपडीमें परमात्माको समाना चाहते हो ?” विद्वान बडा विचारक था । उसने पुनः कहा, “तुम इस छोटीसी खोपडीमें यदि परमात्माको समा लोगे तो मेरा यह गड्ढा तुम्हारी खोपडीसे बडा है और सागर परमात्मासे छोटा है; विक्षिप्त कौन है ?” उस दिवस विद्वानको पता चला कि विक्षिप्त मैं ही हूं !उस विक्षिप्तने मुझपर बडी कृपा की । वह कौन व्यक्ति रहा होगा ? वह व्यक्ति अवश्य ही एक उच्च कोटिका सन्त रहा होगा, समाधिस्थ रहा होगा, वह केवल विद्वानको जगानेके लिए, उसको चेतानेके लिए और उसका अहङ्कार भङ्ग करने ही आया होगा ।
